मंगलवार, 20 दिसंबर 2022

पराली: ध्वंसकर्ता या सृजनकर्ता!


वो कोई नवंबर का समय रहा होगा। हमलोग पहाड़ों का भ्रमण कर वापस लौट रहे थे। जैसे ही पठानकोट का इलाका पार किया, दृश्यें बहुत तेजी से बदलने लगीं। पहाड़ों और वृक्षों की ओट से लुकता छुपता सूर्य सीधे हमें धप्पा  मार रहा था। दूर दूर तक फैले धान के सुनहरे पके खेत हमें इस इलाके की समृद्धि का अहसास करा रहा थे।खुशहाली से दमकते खेत को देख मैं सोचने पर मजबूर हो गई, आखिर क्यों, ऐश्वर्य से परिपूर्ण ये जमीन आजकल प्रदूषण फैलान के लिए बदनाम हो रही है। 

अब सूर्य की रौशनी धूमिल होने लगी थी और ऐसा लग रहा था, मानों संध्या रानी यहां छा जाने की इजाजत मांग रही हो।  शीघ्र ही खामोश शाम की तमस चारों ओर फैल गई, पर ये पल काफी बेचैन कर देने वाला था, क्योंकि अब जो हवा हमारे पास आ रही थी, उसमें धुएं की कड़वाहट भरी हुई थी। इससे प्रकृति भी धुंधली होने लगी थी। स्वच्छ हवाएं के अभाव में हमारी सांसें भी तेज होने लगीं। 

ध्यान से दूर तक देखा, तो पाया कि हमलोग उस ओर बढ़ रहे थे, जहां खेतों से धुएं के साथ आग की ऊंची ऊंची लपटें उठ रही थीं। इसे देख ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो अनिल शोलों का दामन थामें सारी वादियों का भ्रमण करने निकल पड़ा हो। कहीं ठहर कर शोलों को और भड़कने देता, तो कहीं शांत पड़े खेतों को फांद कर आगे बढ़ जाता। 

जब हम कौतुहल से इस नजारे को देख रहे थे, तब ड्राइवर ने बताया, इस समय किसान पराली जलाते हैं। दूर दूर तक ये पराली जलता ही रहता है। होता ये है कि जब धान की फसल तैयार हो जाती है, तो किसान उनकी वालियों को काट लेते हैं और झाड़-झंखाड़ में आग लगा देते हैं। जब आग से जलकर खेत साफ हो जाते हैं, तब उसमें दोबारा नई फसल लगा दी जाती है। 

एक समय ऐसा आया, जहां पर तो चारों ओर बस आग ही आग नजर आ रही थी, वहां आबादी का तो नामो-निशान भी नहीं था। हां,  कुछ खेतों में ट्रैक्टर चलने की आवाज जरूर आ रही थी। तो, जाहिर है  खेत जोते जा रहे होंगे, पर आग से जलते खेतों को क्यों जोता जाएगा? हमलोगों के मन में ये सवाल कौंध रहा था। फिर, ड्राइवर ने ही बताया, यहां के किसान जरा भी समय को जाया नहीं होने देते हैं। आज आग जल रही है, कल तक उसे ठंडा होने दिया जाएगा और परसों उसको जोत कर उसमें फसल बो दिया जाएगा।   

जलते हुए खेतों से कुछ दूरी पर ट्रैक्टर से कुछ खेत जोते जा रहे थे, वहीं कुछ खेत शांत पड़े थे। मानो  ये कुछ होने की बांट जोह रहे हो। (कबीरदास की कविता की कलियों की तरह

"मालन आवत देख के कलियां करत पुकार।"

"फूल फूल सब चुन लियो कली हमारी बार। " 

पर हमलोग जैसे जैसे आग के बीच से गुजर रहे थे, धुएं की धुंध इतनी गहरी हो गई थी, कि हमें बस कुछ दूरी के रास्ते ही दिख रहे थे। वाहन तो धुएं फैलाते हैं, प्रदूषण भी बढ़ाते हैं, वो हमारी बदकिस्मती है, पर ये धुआं तो लाखों वाहनों पर भारी है। हम भयभीत निगाहों से उन दृश्यों को निहारते रहे और भगवान से प्रार्थना करते रहे " हे, भगवान! हमारी इस यात्रा को थोड़ी छोटी कर दो या  हमारी रफ्तार इतनी ज्यादा हो जाए, ताकि यहां से हम जल्द भाग निकलें। 

फिर भी मेरी सजल नेत्रों ने एक एक बात को स्पष्ट अनुभव किया। विनाश और सृजन की कहानी को। आग के कारण जो धुएं के बादल यहां से उड़ते उड़ते महानगरों तक पहुंच जाते हैं, लाखों लोगों को प्रदूषण से आंखों की जलन और फेफड़ों की तकलीफों से अस्पताल तक जाना पड़ जाता है और ये स्थिति कई कई दिनों तक बनी रहती है। 

पर आनन-फानन में उन्हीं जमीनों पर सृजन भी की जाने लगती है, नया बीज, नई आशा के अंकुर फूट पड़ते हैं और जल्द ही नई फसलें की खेप तैयार होने लगती है। फिर इसे क्या कहें-ध्वंसकर्ता या सृजनकर्ता।  

                                                                                                 

                                                  लेखिका-चंद्रकांता दांगी


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