कउआडोल
चन्द्रकान्ता
दांगी
ये संस्मरण बिहार के गया शहर से थोड़ी दूरी पर स्थित “कउआडोल या बराबर पहाड़ का है। आज भी
हमारे देश में कुछ ऐसे रीति रिवाज हैं, जिसे लोग सदियों से निभाते चले आ रहे हैं।
बहुत सारी परंपराओं को लोग छोड़ नहीं पा रहे हैं। ऐसी परंपराएं लोगों की जिंदगी का
हिस्सा बन चुकी है। इसलिए मुझे लगा इस संस्मरण को मैं आप सबके सामने रखना चाहिए।
हम लोग गया से गाड़ी
लेकर “कउआडोल” के लिये निकले। हमें बताया गया था कि
वहां जाने के लिये हमलोगों को चार घंटे की यात्रा करनी पड़ेगी। यात्रा से हमलोग खुश
थे, क्योंकि पहाड़ के निकट ही हमारे रिश्तेदार का घर था और वे लोग खाने-पीने की व्यवस्था भी करने वाले थे। इसलिये
हमारी चिन्ता मुक्त यात्रा की शुरुआत हो गई।
थोड़ी दूर चलने के बाद ही रास्ता काफी खराब निकला।
इतना खराब कि हमारी गाड़ी हिचकोले खाने लगी। और फिर रास्ते के उठा-पटक से पेट मे दर्द भी होने लगा।
बावजूद इसके यात्रा कुछ देर से ही सही पर पूरी हो गई। हमलोग रिश्तेदार के घर पहुंच
गए। हालांकि, वे लोग पहले से ही
पहाड़ी के नीचे पहुंच चुके थे। वहां खाने-पीने की अच्छी व्यवस्था थी। मन ने कहा “चलो आज अच्छी पिकनिक हो गई हमारी”।
धान के खेतों के बीच-बीच में कुछ गन्ने के खेत थे। कुछ किसान
रास्ते पर ही अपने गन्ने की पिराई कर रस निकाल रहे थे। उनलोगों ने हमें गांव का मेहमान
समझा, तो बाल्टी भर गन्ने का रस
थमा दिया। हमलोग रस पीते-पीते आगे चल दिये।
बहुत ही मस्त वातावरण था। खेतों की हरियाली, ठंड की गुनगुनी धूप और गन्ने की मिठास।
मन पहले से ही थई-थई करने लगा था। और
जब पहाड़ की तराई में पहुंचे तो वहां का दृश्य बड़ा ही मनोरम था। ऊंचे-ऊंचे पहाड़ की
श्रृंखला दूर तक फैली हुई थी। पहाड़ पर ही भगवान भोले का मन्दिर था, जहां तक जाने के
लिये सीढ़ियां बनाई गई थी।
हमलोग एक दूसरे से मिले-जुले, प्रणाम–पाती हुई। फिर हमलोग निकल पड़े पहाड़ी पर भ्रमण के लिये। पहाड़ की ऊंचाइयों से देखने
पर दूर-दूर तक खेत और कुछ गांव दिखाई
पड़ रहे थे। मन में एक प्रश्न उठा। इन मैदानों में भला ये पहाड़ कैसे उत्पन्न हो गया
या फिर लोग पुस्त-दर-पुस्त पहाड़ को काटते रहे होंगे और पत्थर फेंकते फेंकते खेत बढ़ते
गये।
जब हम लोग पहाड़ के नीचे पहुंचे, तो देखा कि मेजबान हमलोगों
के भोजन की व्यवस्था में व्यस्त थे। इसलिये हमलोग पहाड़ भ्रमण के लिए निकल पड़े।
कुछ ऊंचाई चढ़ने के बाद मैंने एक नई नवेली जोड़े को अपने
से आगे जाते हुए देखा। उन्हें देख कर महसूस हो रहा था जैसे आज ही उनका विवाह हुआ हो।
मैं सोचने लगी कि आज ही बनी दुल्हन पहाड़ी पर क्या करने आई?
मैं तेज चलती हुई उनके पास पहुंच गई। उनके पास
पहुंचकर मैंने उनसे पूछा- ए, बबुआ पहाड़ी पर चढ़ने
की कोई रीति है, क्या? तब लड़के ने हंसते
हुए कहा- ना दीदी, ऐसी कोई रीति ना है। ये तो हम अपने घर
जा रहे हैं। अच्छा, मैं बोली तनिक बइठ, सुस्ता लेते हैं और थोड़ी बातें भी कर
लें। तब हम लोग चट्टानों पर पास-पास बैठ गये। फिर मैं बोली- तुमलोगों का आज ही ब्याह हुआ है? फिर अकेले पहाड़ के उपर, कहां घर है तुम्हारा? पहाड़ों में तो कोई घर न दिख रहा है।
तब, दुल्हा बोला- देखो दीदी, पहाड़ के इस ओर जिधर से मैं आ रहा हूं,
उधर मेरा ससुराल है, और पहाड़ के उस पार
मेरा घर। मतलब ये कि पहाड़ से इस तरफ से चढ़ो और दुसरी तरफ उतर कर घर पहुंच जाओ। मैंने कहा- भाई, आज तुम्हारा ब्याह हुआ है तो (बराती, आजन-बाजन) सारे कहां हैं?
दुल्हा- दीदी, वो लोग तो अपनी चाल से कबका
घर पहुंच गए होंगे, हम ही इस के साथ पिछड़
गये हैं। तब मैंने मजे लेते हुए कहा- जानते हो दूर से तुम्हारी कनिया (पत्नी) ऐसी दिख रही थी- (काली -काली पथड़ा में लाली रे दुल्हनिया, कंटवा में उलझी भोली-भाली रे दूल्हनिया)
वो मेरा गाना सुन कर ताली बजाकर हंसते हुए कहने लगा, ऐही गीत तो हमरी गांवों में खुब बजती रही, लाउडस्पीकरवा मां। और उसके साथ-साथ हम-दोनों भी हंस पड़े, तब मैं उसकी दुल्हन की साड़ी में फंसी
चिड़चीरी के कांटों को निकाल कर उसके हाथ पर रख दिया, तो वो कहने लगा- दीदी, ये पत्थर और कांटे ही तो हमरी जीवन है, इस से हम अलग हो ही नहीं सकते।
तो ठीक है भाई, भगवान तुम्हें इनसे मुकाबला करने की हिम्मत
दें, कहती हुई मैं नीचे उतर आई।
पर नीचे भी एक और पुरातन संस्कृति मेरा इंतजार कर रही थी। नीचे चारों तरफ ग्रेनाइट
के काले-काले पत्थर फैले हुए थे, जो
थाली जैसे समतल और चिकने थे। इस पहाड़ पर अधिकतर
चट्टान काले थे। जब हमलोग उपर जा रहे थे, तब रास्ते में हमें कई गुफायें भी दिखे थे,
जो सभी बिल्कुल काले और अंधेरे थे। यहां के लोग बताते हैं कि कभी किसी काल में संन्यासी-बाबा लोग इन गुफाओं में बैठ कर साधना किया
करते थे और ॐ की ध्वनि से पूरा पहाड़ गुंजा करता था। हमारे मेजबान अभी भी कामों
में व्यस्त थे। उन्होंने हमें देख कर बैठने का इशारा किया तो मैं एक चट्टान पर बैठ
कर उनके क्रियाओं को समझने की कोशिश करने लगी। वे लोग एक छोटा सा कुएं से पानी निकाल-निकाल कर एक-दो चट्टानों को धो रहे थे। जब वे धुल कर
साफ हो गये, तब उसे अच्छी तरह से पोंछा गया।
पानी जब पूरी तरह से सुख गया, तब उनके ठीक बीचों-बीच गर्म-गर्म भात का ढेर बना दिया गया। उसके बाद गरम भात को उपर से दबा कर गढ़े कर उपर से
कटोरी का रूप दे दिया गया, अब कलछी द्वारा उस कटोरी में गाढ़ी दाल कुछ इस तरह से डाल
दिया गया कि पूरा चावल दाल से ढंक गया।
किसी ने गर्मा-गर्म खुशबूदार घी का डब्बा ले आया। चावल
के उपर घी डाला जाने लगा। जब ये प्रक्रिया पूरी हो गई, तब उन भात के ढेर को कलछी से
काट कर चार हिस्सों में बांट दिया गया। इसके बाद प्रत्येक भाग के पास थोड़ी
थोड़ी सब्जी, अचार रखे गये। जब उनकी
नजरों मे थाल सज गई तब लोगों को आमंत्रण दिया जाने लगा। और लोग आरंभ से आलथी-पालथी मार कर भात के एक भाग के पास बैठ
गये यानी प्रत्येक चट्टान पर चार-चार लोग एक साथ बैठ
कर खाना खाने लगे।
वहां बैठकर खाने के लिए मुझे भी बुलावा आ गया। लेकिन मैं
गहरे अजमंजस में थी। लावारिस पड़े 'चट्टानों’ को
भले ही धोया गया था, पर उसमें पतले पतले खरोंच तो थे ही, जिसमें गंदगी मौजुद हो सकती
थी। मैं सोच ही रही थी कि लोगों का शोर बढ़ने लगा था। लोग कहने लगे थे कि– बहना, अब
आ भी जाओ। कोई कह रह था दीदी, बैठिये न कुछ नहीं होगा, ये हमारी पुरानी परम्परा है।
बाध्य होकर मैं भी भात के एक ढेर के सामने बैठ गई। छोटा
सा निवाला बना कर मुंह में डाला, पर ये क्या? दाल-चावल, जो साधारण ढंग से बनाये गये थे, उसमें
इतना स्वाद कैसे आया या आज का ये भोजन इन चट्टानो की वजह से इतना सुस्वादु बन गया
था? खैर, जो भी हो पर हमने अपने
पूरी जीवन में ऐसा दाल-चावल नहीं खाया था
और वो स्वाद आज भी मेरे मुंह मे रचा-बसा है।
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