बाबू, जरा बच के
लेखिका-चंद्रकांता दांगी
वो होली के दो दिन पहले का समय था। उस दिन मैं 'पटना' से 'कोलकाता' तक की यात्रा कर रही थी। वातानुकुलित आरक्षित बोगी में मैं निश्चिंत हो बैठ गई, इस बात से अनभिज्ञ की आगे की यात्रा में क्या होने वाला है।जब ट्रेन शहर को पीछे छोड़ती ग्रामीण इलाके में निकल आई तो ऐसा महसूस हुआ कि वो आकाश जो हमें टुकड़ों टुकड़ों में दिख रहा था, वो अब विशाल रूप लेकर हमारे साथ दौड़ने लगा हो, और उसके साथ ही भाग रहे थे पतझड़ में नग्न-धड़ंग हुए वृक्ष भी। उनके उदास आभा को जैसे सांत्वना देती मैं समझाने लगी, "तुम अपने पत्तों का विछड़ जाने पर उदास मत हो, क्योंकि अगल बगल ही 'सेमल' और 'पलास' के वृक्ष भी तो हैं, जिनके फूल पूरी वादियों में आग की तरह दहक रहे हैं और जो अपनी पंखुरियों को तुम्हारी टहनियों पर बिखरा कर तुम्हें फूलों के गहने पहना रहे हैं।
थोड़ी देर बाद बाहर काफी भीड़ नजर आने लगी, शायद कोई स्टेशन आ रहा था। मैं अपने बगल में टटोलने लगी, मेरा खाने का डब्बा आराम से पड़ा हुआ था। ट्रेन रूकी, प्रचन्ड शोर के साथ लोग धक्का-मुक्की करते हुए बोगी में घुस आए, ऐसा लग रहा था जैसे मानव 'सुनामी' हो, जिसका पानी तटों को तोड़ता हमारे सर के ऊपर तक फैल चूका हो। मैं सर के ऊपर की बात इसलिये कह रही हूं कि जब मैंने अपने ऊपर देखा तो कई लोग अपनी गंदी चप्पलों के साथ ही ऊपर के बर्थ पर चढ़ चूके थे। उनके पैरों से झड़ते धूल के कण मेरी आंखों में समा गए। और जब मैं अपने पास पड़े खाने के डिब्बे को तलाशना चाहा, तो पाया कि वो कई हाथों में हस्तांतरित हो किसी अनजान कोने में स्थापित हो चूका है।
तभी शोर उभरा, "भइया"! अब कहां घुसीत ह? यहां तो अब पैर धरने की भी जगह नहीं बची है।" दूसरा-अरे,जरा सी जगह देइ द न भाई, कच्ची हांडी में दही भरी है कहीं टूट ना जाये।
इस भीड़ की जमघट में भी लोग इस तरह व्यवस्थित होकर गप्पे मारने लगे, मानो पानी के बुलबुले हों जो बहते बहते भी मस्ती तलाश लेना चाहते हों। इसलिये ही तो अपने पैरों को किसी दूसरे के पैरों के दबे होने के बावजूद या मटकी टूट जाने की चिंताओं के बीच भी वे लोग बातों में तल्लीन हो गए। ऊपर से किसी ने पूछा- चचा! कहां तक जाओगे दही पहुंचाने?
दही वाले-यही कोई तीन स्टेशन तक जाइव हो, वहां हमरी बिटिया के ससुराल है, इस बार उसकी गइया 'गाभिन' हो गई है, फिर बिन दही के होली पर कढ़ी-फुलौड़ी कइसे बनाई?
तीसरा- हां, भाई अब साल भर के परब बा तो मिल-जूल के ही तो खइहें-पकइहें।
तभी एक और व्यक्ति सर पे हरे-चने के झाड़ और हाथ में एक बड़ी थैली लिये, लोगों के धक्के से अंदर तक घूसता चला आया तब किसी ने हांक लगाई- अरे बाबू, बच के हो! तोहरा के दिखाई ने दे ता, कहीं उनकी काच्ची हांडी फूट न जाई।
आगन्तुक-अब का करें भाई इतनी भीड़ है कि स्थिर ही न रहने पाये हम। और आज के आज ही न जायें तो सामान कब पहुंची। कल ही तो होलिका जली तो बाद में इन चीजों की जरूरत ही नहीं रह जायेगी।
पर मैं इनकी भावनाओं से अलग अपने ही कष्टों से तड़प रही थी, क्योंकि धूल के कण अभी भी आंखों में चूभ रहे थे, चने की सुखी पत्तियां उड़-उड़कर पीठ और बाहों पर जलन पैदा कर रहे थे और खाने का डिब्बा भी गुम हो चूका था, अब यात्रा लंबी, कटेगी कैसे?
तो मैं अपने हमवतन ग्रामवासियों से बस इतना निवेदन करना चाहती हूं कि, " आपकी त्योहार मनाने की भावना का मैं कद्र करती हूं पर त्योहारों का ऐसा जुनून भी किस काम का, जो मेरी तरह सैंकड़ों यात्रियों के लिए कष्ट का कारण बनें। "
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लेखिका- चंद्रकांता दांगी |
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-पराली: ध्वंसकर्ता या सृजनकर्ता