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मंगलवार, 16 जुलाई 2024

Audio Kahani: Babu Jara Bach ke by ChandraKanta Dangi


Audio Kahani: Babu Jara Bach ke by ChandraKanta Dangi ऑडियो कहानी टाइम- 'बाबू, जरा बचके'- चंद्रकांता दांगी मेरा नाम चंद्रकांता दांगी है। मैं गृहिणी हूं और लेखिका भी हूं। मुझे अपनी लिखी कहानी आपको सुनाना पसंद है। मैं अपने अनुभवों को, अपने संस्मरण को आपके साथ साझा करना चाहती हूं। मेरी किताब 'बयार' प्रकाशित हो चुकी है। आज मैं आपको अपनी लिखी कहानी 'बाबू, जरा बचके' आपके साथ साझा कर रही हूं। मेरी कहानी सुनने के लिए इस चैनल  को सब्सक्राइव कर लीजिए। कहानी को ज्यादा से ज्यादा  शेयर कीजिए। तो, चलिये मेरी कहानी सुनिये-


>चंद्रकांता दांगी की दूसरी कहानियां 

1- Kahani Time: Karahati Lash By ChandraKanta Dangi

2- Kahani Time: Mil Gaye Mere Bhagwan by ChandraKanta Dangi

3-Kahani Time: KauaaDol by ChandraKanta Dangi

4- Kahani Time: Phool Tumhe Bhejha hai by ChandraKanta Dangi

5-Kahani Time: Kshitij Ke Paar by ChandraKanta Dangi

6-Audio Kahani: Babu Jara Bach ke by ChandraKanta Dangi


-कउआडोल (कहानी; लेखिका-चंद्रकांता दांगी) (KauaDol; Story, Writer- Chandrakanta Dangi)

-मिल गए मेरे भगवान (कहानी- लेखिका-चंद्रकांता दांगी) (Mil Gaye Mere Bhagwan (Story-Writer-ChandraKanta Dangi)

-कराहती लाश (कहानी-लेखिका-चंद्रकांता दांगी); Karahati Lash (Story-Writer-Chandrakanta Dangi)

-फूल, तुम्हें भेजा है (कहानी) ।। Phool, Tumhe Bheja Hai

 -पराली:  ध्वंसकर्ता या सृजनकर्ता

-बाबू, जरा बच के


शुक्रवार, 7 जून 2024

Kahani Time: Kshitij Ke Paar by ChandraKanta Dangi


Kahani Time: Kshitij Ke Paar by ChandraKanta Dangi ऑडियो कहानी टाइम- 'क्षितिज के पार'- चंद्रकांता दांगी मेरा नाम चंद्रकांता दांगी है। मैं गृहिणी हूं और लेखिका भी हूं। मुझे अपनी लिखी कहानी आपको सुनाना पसंद है। मैं अपने अनुभवों को, अपने संस्मरण को आपके साथ साझा करना चाहती हूं। मेरी किताब 'बयार' प्रकाशित हो चुकी है। आज मैं आपको अपनी लिखी कहानी 'क्षितिज के पार' आपके साथ साझा कर रही हूं। मेरी कहानी सुनने के लिए इस चैनल  को सब्सक्राइव कर लीजिए। कहानी को ज्यादा से ज्यादा  शेयर कीजिए। तो, चलिये मेरी कहानी सुनिये-




>चंद्रकांता दांगी की दूसरी कहानियां 

-Kahani Time: Kshitij Ke Paar by ChandraKanta Dangi

https://youtu.be/z5zNGqSvh14

- Kahani Time: Phool Tumhe Bhejha hai by ChandraKanta Dangi

https://youtu.be/BhOy9kfJJ0g

-मिल गए मेरे भगवान (कहानी- लेखिका-चंद्रकांता दांगी) (Mil Gaye Mere Bhagwan (Story-Writer-ChandraKanta Dangi)

-कराहती लाश (कहानी-लेखिका-चंद्रकांता दांगी); Karahati Lash (Story-Writer-Chandrakanta Dangi)

-फूल, तुम्हें भेजा है (कहानी) ।। Phool, Tumhe Bheja Hai

 -पराली:  ध्वंसकर्ता या सृजनकर्ता

-बाबू, जरा बच के


गुरुवार, 23 मई 2024

Kahani Time: KauaaDol by ChandraKanta Dangi

Kahani Time: KauaaDol by ChandraKanta Dangi ऑडियो कहानी टाइम- 'कउआडोल'- चंद्रकांता दांगी मेरा नाम चंद्रकांता दांगी है। मैं गृहिणी हूं और लेखिका भी हूं। मुझे अपनी लिखी कहानी आपको सुनाना पसंद है। मैं अपने अनुभवों को, अपने संस्मरण को आपके साथ साझा करना चाहती हूं। मेरी किताब 'बयार' प्रकाशित हो चुकी है। आज मैं आपको अपनी लिखी कहानी 'कउआडोल' आपके साथ साझा कर रही हूं। मेरी कहानी सुनने के लिए इस चैनल  को सब्सक्राइव कर लीजिए। कहानी को ज्यादा से ज्यादा  शेयर कीजिए। तो, चलिये मेरी कहानी सुनिये-


>चंद्रकांता दांगी की दूसरी कहानियां 

1- Kahani Time: Karahati Lash By ChandraKanta Dangi

2- Kahani Time: Mil Gaye Mere Bhagwan by ChandraKanta Dangi

3-Kahani Time: KauaaDol by ChandraKanta Dangi

4- Kahani Time: Phool Tumhe Bhejha hai by ChandraKanta Dangi

5-Kahani Time: Kshitij Ke Paar by ChandraKanta Dangi

6-Audio Kahani: Babu Jara Bach ke by ChandraKanta Dangi


-कउआडोल (कहानी; लेखिका-चंद्रकांता दांगी) (KauaDol; Story, Writer- Chandrakanta Dangi)

-मिल गए मेरे भगवान (कहानी- लेखिका-चंद्रकांता दांगी) (Mil Gaye Mere Bhagwan (Story-Writer-ChandraKanta Dangi)

-कराहती लाश (कहानी-लेखिका-चंद्रकांता दांगी); Karahati Lash (Story-Writer-Chandrakanta Dangi)

-फूल, तुम्हें भेजा है (कहानी) ।। Phool, Tumhe Bheja Hai

 -पराली:  ध्वंसकर्ता या सृजनकर्ता

-बाबू, जरा बच के


गुरुवार, 20 अप्रैल 2023

फूल, तुम्हें भेजा है (कहानी) ।। Phool, Tumhe Bheja Hai


जनवरी महीने की एक खूबसूरत दोपहर को, जो धूप से सराबोर थी, मैं खुद को रोक नहीं पाई और बाहर सैर के लिए निकल पड़ी। पर, बाहर का नजारा देखकर मैं सचमुच खिल उठी, क्योंकि 'बोगनविलिया' के फूल अपने यौवन पर थे, रंग-बिरंगे फूलों से लदी डालियां जमीन पर बिछ सी गई थी। और ऊपर से आलम ये था कि सूर्य की मूलायम, गर्म किरणें सर्दी से ठिठुरती शरीर को गर्माहट दे रही थी। ऐसे में दिल कर रहा था, बस चलती ही रहूं और ये रास्ते खत्म ही ना हो। रास्ते के मोड़ के साथ मुड़ती झुमती मैं चली ही जा रही थी, कि एक मोड़ पर देखा रमा, अपने फ्लैट के सामने बैठी धूप ताप रही थी, न चाहते हुए भी उससे बातें करनी पड़ी। वो अच्छे मुड में थी और बातों बातों में मुझे अपने घर में ले आई, बाहर के नजारें मुझे अपनी ओर इशारे से बुला रहे थे, पर मैं विवश हो, उसके सोफे में धंस गई। 

दो मिनट बाद ही रमा का मोबाइल बज उठा। वह ये कहती हुई उठ गई कि आज मेरा जन्मदिन है। इसलिये बार बार फोन आ रहे हैं और वह फोन पर बातों में मशगुल हो गई। और मैं अनमनी सी बैठी उसकी बातों को सुनकर मुस्कराने की कोशिश करती रही। फिर तो अगले 30 मिनट तक ये सिलसिला चलता रहा, इतने समयों में उसके लगभग दस कॉल आ चुके थे। हर बार शायद उसे बधाई दी जाती, और वह बोल पड़ती- थैक्यू जी। उसकी थैंक्यू से मैं थकने लगी थी, पर वो तो थकने का नाम ही नहीं ले रही थी। किसी तरह उससे इजाजत लेकर वापस आ गई। 

पर, दूसरे दिन, कल का रोमांच मुझे आज भी न्यौता देने लगे थे, और मैं मंत्रमुग्ध सी बाहर निकल आई। " पर हाय री, मेरी किस्मत! आज फिर से रमा सामने खड़ी थी। मैंने यूं ही पूछ लिया, " उम्मीद है कल की थकान उतर गए होंगे?" " कहां यार, जरा झांक तो लो मेरे ड्राइंग रूम में "। और जब मैंने अंदर देखा तो दंग रह गई। वहां फूलों के गुलदस्ते ठूंसे पड़े हुए थे। सोफे पर, टेबल पर, जमीन पर हर जगह पर लाल, पीली कलियां ही नजर आ रही थी। यहां तक कि एक दूसरे को धकियाते गुलदस्ते दरवाजे तक फैले आए थे। 

मैंने ध्यान से देखा तो खूबसूरत अधखिली कलियां जोर लगाकर अपनी बंद पंखुड़ियों को खोलने का प्रयत्न कर रही थी। शायद मुरझाते मुरझाते भी अपनी अभिलाषा को पूर्ण कर लेना चाहती थी, और एक कली भला क्या चाहेगी, पूर्ण फूल बन जाना, ताकि उसकी पंखुड़ियां हवा में इस तरह लहराये कि उसकी खुशबू बाग में फैल जाए और गुन गुन करते भंवरे उसकी ओर दौड़ पड़ें। बस, एक दिन तो शबनम की बुंदों से वो सिहर उठे, पर उसकी पंखुड़ियां थोड़े से फैलकर फिर से बंद हो जाती, क्योंकि उसमें और खुलने की ताकत बची ही नहीं थी। 

तभी कुछ लोग आये और उन फूलों को गाड़ी में भरने लगे, क्योंकि अब वो कचड़ा बन चुकी थीं। पर, कुछ कलियों के गुच्छे अस्त व्यस्त हो गाड़ी से बाहर झुलने लगे थे। मेरी तरफ लटकती वो लाल लाल कलियां, ऐसा लग रहा था जैसे सिसक रही हों। रोते रोते उनकी पंखुड़ियां मुंदती जा रही थी, शायद वो अब अपनी आशाओं को निरर्थक मान चुकी थी। 

इस मुहूर्त पे जो मेरे जेहन में कौंधा, वो था, जयशंकर प्रसाद जी की लिखी, ये दो पंक्तियां- ये तो  नहीं जानती कि महाकवि ने ना जाने कितना भावुक होकर इस कविता की रचना की होगी, पर मुझे इतना विश्वास है कि वो आज इन मासूम कलियों को देखकर ऐसा कुछ जरूर लिख जाते। वो पंक्तियां हैं- 

सुख का सपना बन जाना ।।

भीगें पलकों का लगना ।। 

तो, बंधुओं हमारा सप्रेम भेंट तो एक फूल भी हो सकता है फिर दिखावा क्यूं? "गौर कीजिएगा।" 


लेखिका- चंद्रकांता दांगी 

चंद्रकांता दांगी की और कहानियां:

-फूल, तुम्हें भेजा है (कहानी) ।। Phool, Tumhe Bheja Hai

 -पराली:  ध्वंसकर्ता या सृजनकर्ता

-बाबू, जरा बच के


शुक्रवार, 17 मार्च 2023

बाबू, जरा बच के

                                                 बाबू, जरा बच के

                                                                 लेखिका-चंद्रकांता दांगी 

वो होली के दो दिन पहले का समय था। उस दिन मैं 'पटना' से 'कोलकाता' तक की यात्रा कर रही थी। वातानुकुलित आरक्षित बोगी में मैं निश्चिंत हो बैठ गई, इस बात से अनभिज्ञ की आगे की यात्रा में क्या होने वाला है। 

               जब ट्रेन शहर को पीछे छोड़ती ग्रामीण इलाके में निकल आई तो ऐसा महसूस हुआ कि वो आकाश  जो हमें टुकड़ों टुकड़ों में दिख रहा था, वो अब विशाल रूप लेकर हमारे साथ दौड़ने लगा हो, और उसके साथ ही भाग रहे थे पतझड़ में नग्न-धड़ंग हुए वृक्ष भी। उनके उदास आभा को जैसे सांत्वना देती मैं समझाने लगी, "तुम अपने पत्तों का विछड़ जाने पर उदास मत हो, क्योंकि अगल बगल ही 'सेमल' और 'पलास' के वृक्ष  भी तो हैं, जिनके फूल पूरी वादियों में आग की तरह दहक रहे हैं और जो अपनी पंखुरियों को तुम्हारी टहनियों पर बिखरा कर तुम्हें फूलों के गहने पहना रहे हैं। 

  थोड़ी देर बाद बाहर काफी भीड़ नजर आने लगी, शायद कोई स्टेशन आ रहा था। मैं अपने बगल में टटोलने लगी, मेरा खाने का डब्बा आराम से पड़ा हुआ था। ट्रेन रूकी, प्रचन्ड शोर के साथ लोग धक्का-मुक्की करते हुए बोगी में घुस आए, ऐसा लग रहा था जैसे मानव 'सुनामी' हो, जिसका पानी तटों को तोड़ता हमारे सर के ऊपर तक फैल चूका हो। मैं सर के ऊपर की बात इसलिये कह रही हूं कि जब मैंने अपने ऊपर देखा तो कई लोग अपनी गंदी चप्पलों के साथ ही ऊपर के बर्थ पर चढ़ चूके थे। उनके पैरों से झड़ते धूल के कण मेरी आंखों में समा गए। और जब मैं अपने पास पड़े खाने के डिब्बे को तलाशना चाहा, तो  पाया कि वो कई हाथों में हस्तांतरित हो किसी अनजान कोने में स्थापित हो चूका है। 

        तभी शोर उभरा, "भइया"!  अब कहां घुसीत ह?  यहां तो अब पैर धरने की भी जगह नहीं बची है।" दूसरा-अरे,जरा सी जगह देइ द न भाई, कच्ची हांडी में दही भरी है कहीं टूट ना जाये। 

       इस भीड़ की जमघट में भी लोग इस तरह व्यवस्थित होकर गप्पे मारने लगे, मानो पानी के बुलबुले हों जो बहते बहते भी मस्ती तलाश लेना चाहते हों। इसलिये ही तो अपने पैरों को किसी दूसरे के पैरों के दबे होने के बावजूद या मटकी टूट जाने की चिंताओं के बीच भी वे लोग बातों में तल्लीन हो गए। ऊपर से किसी ने पूछा- चचा! कहां तक जाओगे दही पहुंचाने?

दही वाले-यही कोई तीन स्टेशन तक जाइव हो, वहां हमरी बिटिया के ससुराल है, इस बार उसकी गइया 'गाभिन' हो गई है, फिर बिन दही के होली पर कढ़ी-फुलौड़ी कइसे बनाई?

तीसरा- हां, भाई अब साल भर के परब बा तो मिल-जूल के ही तो खइहें-पकइहें। 

तभी एक और व्यक्ति सर पे हरे-चने के झाड़ और हाथ में एक बड़ी थैली लिये, लोगों के धक्के से अंदर तक घूसता चला आया तब किसी ने हांक लगाई- अरे बाबू, बच के हो! तोहरा के दिखाई ने दे ता, कहीं उनकी काच्ची हांडी फूट न जाई। 

आगन्तुक-अब का करें भाई इतनी भीड़ है कि स्थिर ही न रहने पाये हम। और आज के आज ही न जायें तो सामान कब पहुंची। कल ही तो होलिका जली तो बाद में इन चीजों की जरूरत ही नहीं रह जायेगी। 

    पर मैं इनकी भावनाओं से अलग अपने ही कष्टों से तड़प रही थी, क्योंकि धूल के कण अभी भी आंखों में चूभ रहे थे, चने की सुखी पत्तियां उड़-उड़कर पीठ और बाहों पर जलन पैदा कर रहे थे और खाने का डिब्बा भी गुम हो चूका था, अब यात्रा लंबी, कटेगी कैसे?

तो मैं अपने हमवतन ग्रामवासियों से बस इतना निवेदन करना चाहती हूं कि, " आपकी त्योहार मनाने की भावना का मैं कद्र करती हूं पर त्योहारों का ऐसा जुनून   भी किस काम का, जो मेरी तरह सैंकड़ों यात्रियों के लिए कष्ट का कारण बनें। " 

 

लेखिका- चंद्रकांता दांगी 

चंद्रकांता दांगी की और कहानियां:

 -पराली:  ध्वंसकर्ता या सृजनकर्ता

-बाबू, जरा बच के


मंगलवार, 20 दिसंबर 2022

पराली: ध्वंसकर्ता या सृजनकर्ता!


वो कोई नवंबर का समय रहा होगा। हमलोग पहाड़ों का भ्रमण कर वापस लौट रहे थे। जैसे ही पठानकोट का इलाका पार किया, दृश्यें बहुत तेजी से बदलने लगीं। पहाड़ों और वृक्षों की ओट से लुकता छुपता सूर्य सीधे हमें धप्पा  मार रहा था। दूर दूर तक फैले धान के सुनहरे पके खेत हमें इस इलाके की समृद्धि का अहसास करा रहा थे।खुशहाली से दमकते खेत को देख मैं सोचने पर मजबूर हो गई, आखिर क्यों, ऐश्वर्य से परिपूर्ण ये जमीन आजकल प्रदूषण फैलान के लिए बदनाम हो रही है। 

अब सूर्य की रौशनी धूमिल होने लगी थी और ऐसा लग रहा था, मानों संध्या रानी यहां छा जाने की इजाजत मांग रही हो।  शीघ्र ही खामोश शाम की तमस चारों ओर फैल गई, पर ये पल काफी बेचैन कर देने वाला था, क्योंकि अब जो हवा हमारे पास आ रही थी, उसमें धुएं की कड़वाहट भरी हुई थी। इससे प्रकृति भी धुंधली होने लगी थी। स्वच्छ हवाएं के अभाव में हमारी सांसें भी तेज होने लगीं। 

ध्यान से दूर तक देखा, तो पाया कि हमलोग उस ओर बढ़ रहे थे, जहां खेतों से धुएं के साथ आग की ऊंची ऊंची लपटें उठ रही थीं। इसे देख ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो अनिल शोलों का दामन थामें सारी वादियों का भ्रमण करने निकल पड़ा हो। कहीं ठहर कर शोलों को और भड़कने देता, तो कहीं शांत पड़े खेतों को फांद कर आगे बढ़ जाता। 

जब हम कौतुहल से इस नजारे को देख रहे थे, तब ड्राइवर ने बताया, इस समय किसान पराली जलाते हैं। दूर दूर तक ये पराली जलता ही रहता है। होता ये है कि जब धान की फसल तैयार हो जाती है, तो किसान उनकी वालियों को काट लेते हैं और झाड़-झंखाड़ में आग लगा देते हैं। जब आग से जलकर खेत साफ हो जाते हैं, तब उसमें दोबारा नई फसल लगा दी जाती है। 

एक समय ऐसा आया, जहां पर तो चारों ओर बस आग ही आग नजर आ रही थी, वहां आबादी का तो नामो-निशान भी नहीं था। हां,  कुछ खेतों में ट्रैक्टर चलने की आवाज जरूर आ रही थी। तो, जाहिर है  खेत जोते जा रहे होंगे, पर आग से जलते खेतों को क्यों जोता जाएगा? हमलोगों के मन में ये सवाल कौंध रहा था। फिर, ड्राइवर ने ही बताया, यहां के किसान जरा भी समय को जाया नहीं होने देते हैं। आज आग जल रही है, कल तक उसे ठंडा होने दिया जाएगा और परसों उसको जोत कर उसमें फसल बो दिया जाएगा।   

जलते हुए खेतों से कुछ दूरी पर ट्रैक्टर से कुछ खेत जोते जा रहे थे, वहीं कुछ खेत शांत पड़े थे। मानो  ये कुछ होने की बांट जोह रहे हो। (कबीरदास की कविता की कलियों की तरह

"मालन आवत देख के कलियां करत पुकार।"

"फूल फूल सब चुन लियो कली हमारी बार। " 

पर हमलोग जैसे जैसे आग के बीच से गुजर रहे थे, धुएं की धुंध इतनी गहरी हो गई थी, कि हमें बस कुछ दूरी के रास्ते ही दिख रहे थे। वाहन तो धुएं फैलाते हैं, प्रदूषण भी बढ़ाते हैं, वो हमारी बदकिस्मती है, पर ये धुआं तो लाखों वाहनों पर भारी है। हम भयभीत निगाहों से उन दृश्यों को निहारते रहे और भगवान से प्रार्थना करते रहे " हे, भगवान! हमारी इस यात्रा को थोड़ी छोटी कर दो या  हमारी रफ्तार इतनी ज्यादा हो जाए, ताकि यहां से हम जल्द भाग निकलें। 

फिर भी मेरी सजल नेत्रों ने एक एक बात को स्पष्ट अनुभव किया। विनाश और सृजन की कहानी को। आग के कारण जो धुएं के बादल यहां से उड़ते उड़ते महानगरों तक पहुंच जाते हैं, लाखों लोगों को प्रदूषण से आंखों की जलन और फेफड़ों की तकलीफों से अस्पताल तक जाना पड़ जाता है और ये स्थिति कई कई दिनों तक बनी रहती है। 

पर आनन-फानन में उन्हीं जमीनों पर सृजन भी की जाने लगती है, नया बीज, नई आशा के अंकुर फूट पड़ते हैं और जल्द ही नई फसलें की खेप तैयार होने लगती है। फिर इसे क्या कहें-ध्वंसकर्ता या सृजनकर्ता।  

                                                                                                 

                                                  लेखिका-चंद्रकांता दांगी


मुन (कहानी) II Mun (Kahani) II Chandrakanta Dangi ll SejalRaja ll

Audio Kahani:  Mun  by ChandraKanta Dangi ऑडियो कहानी टाइम- '.  मुन'- चंद्रकांता दांगी मेरा नाम चंद्रकांता दांगी है। मैं गृहिणी हू...