मेरा नाम चंद्रकांता दांगी है। मैं आम गृहिणी हूं। समाज और अपने आसपास की घटनाओं पर मैं गहरी नजर रखती हूं। उनमें से कुछ घटनाएं मेरे संवेदनशील मन को झकझोर देती है और मैं उस पर कुछ ना कुछ लिखने को मजबूर हो जाती हैं। एक इंसान के नाते उन घटनाओं को शब्दों में व्यक्त कर मैं समझती हूं कि कुछ हद तक समाज को अपनी तरफ से कुछ वापस करने की कोशिश करती हूं। समाज से मिल रहे अनुभवों को मैं लेखनी के जरिये आपके सामने ला रही हूं। मेरी किताब 'बयार' इन्हीं सब अनुभवों का एक संग्रह है।
गुरुवार, 16 मई 2024
Kahani Time: Mil Gaye Mere Bhagwan by ChandraKanta Dangi
मंगलवार, 14 मई 2024
Kahani Time: Karahati Lash By ChandraKanta Dangi
रविवार, 5 मई 2024
कउआडोल (कहानी; लेखिका-चंद्रकांता दांगी) (KauaDol; Story, Writer- Chandrakanta Dangi)
कउआडोल
चन्द्रकान्ता
दांगी
ये संस्मरण बिहार के गया शहर से थोड़ी दूरी पर स्थित “कउआडोल या बराबर पहाड़ का है। आज भी हमारे देश में कुछ ऐसे रीति रिवाज हैं, जिसे लोग सदियों से निभाते चले आ रहे हैं। बहुत सारी परंपराओं को लोग छोड़ नहीं पा रहे हैं। ऐसी परंपराएं लोगों की जिंदगी का हिस्सा बन चुकी है। इसलिए मुझे लगा इस संस्मरण को मैं आप सबके सामने रखना चाहिए।
हम लोग गया से गाड़ी
लेकर “कउआडोल” के लिये निकले। हमें बताया गया था कि
वहां जाने के लिये हमलोगों को चार घंटे की यात्रा करनी पड़ेगी। यात्रा से हमलोग खुश
थे, क्योंकि पहाड़ के निकट ही हमारे रिश्तेदार का घर था और वे लोग खाने-पीने की व्यवस्था भी करने वाले थे। इसलिये
हमारी चिन्ता मुक्त यात्रा की शुरुआत हो गई।
थोड़ी दूर चलने के बाद ही रास्ता काफी खराब निकला।
इतना खराब कि हमारी गाड़ी हिचकोले खाने लगी। और फिर रास्ते के उठा-पटक से पेट मे दर्द भी होने लगा।
बावजूद इसके यात्रा कुछ देर से ही सही पर पूरी हो गई। हमलोग रिश्तेदार के घर पहुंच
गए। हालांकि, वे लोग पहले से ही
पहाड़ी के नीचे पहुंच चुके थे। वहां खाने-पीने की अच्छी व्यवस्था थी। मन ने कहा “चलो आज अच्छी पिकनिक हो गई हमारी”।
धान के खेतों के बीच-बीच में कुछ गन्ने के खेत थे। कुछ किसान
रास्ते पर ही अपने गन्ने की पिराई कर रस निकाल रहे थे। उनलोगों ने हमें गांव का मेहमान
समझा, तो बाल्टी भर गन्ने का रस
थमा दिया। हमलोग रस पीते-पीते आगे चल दिये।
बहुत ही मस्त वातावरण था। खेतों की हरियाली, ठंड की गुनगुनी धूप और गन्ने की मिठास।
मन पहले से ही थई-थई करने लगा था। और
जब पहाड़ की तराई में पहुंचे तो वहां का दृश्य बड़ा ही मनोरम था। ऊंचे-ऊंचे पहाड़ की
श्रृंखला दूर तक फैली हुई थी। पहाड़ पर ही भगवान भोले का मन्दिर था, जहां तक जाने के
लिये सीढ़ियां बनाई गई थी।
हमलोग एक दूसरे से मिले-जुले, प्रणाम–पाती हुई। फिर हमलोग निकल पड़े पहाड़ी पर भ्रमण के लिये। पहाड़ की ऊंचाइयों से देखने
पर दूर-दूर तक खेत और कुछ गांव दिखाई
पड़ रहे थे। मन में एक प्रश्न उठा। इन मैदानों में भला ये पहाड़ कैसे उत्पन्न हो गया
या फिर लोग पुस्त-दर-पुस्त पहाड़ को काटते रहे होंगे और पत्थर फेंकते फेंकते खेत बढ़ते
गये।
जब हम लोग पहाड़ के नीचे पहुंचे, तो देखा कि मेजबान हमलोगों
के भोजन की व्यवस्था में व्यस्त थे। इसलिये हमलोग पहाड़ भ्रमण के लिए निकल पड़े।
कुछ ऊंचाई चढ़ने के बाद मैंने एक नई नवेली जोड़े को अपने
से आगे जाते हुए देखा। उन्हें देख कर महसूस हो रहा था जैसे आज ही उनका विवाह हुआ हो।
मैं सोचने लगी कि आज ही बनी दुल्हन पहाड़ी पर क्या करने आई?
मैं तेज चलती हुई उनके पास पहुंच गई। उनके पास
पहुंचकर मैंने उनसे पूछा- ए, बबुआ पहाड़ी पर चढ़ने
की कोई रीति है, क्या? तब लड़के ने हंसते
हुए कहा- ना दीदी, ऐसी कोई रीति ना है। ये तो हम अपने घर
जा रहे हैं। अच्छा, मैं बोली तनिक बइठ, सुस्ता लेते हैं और थोड़ी बातें भी कर
लें। तब हम लोग चट्टानों पर पास-पास बैठ गये। फिर मैं बोली- तुमलोगों का आज ही ब्याह हुआ है? फिर अकेले पहाड़ के उपर, कहां घर है तुम्हारा? पहाड़ों में तो कोई घर न दिख रहा है।
तब, दुल्हा बोला- देखो दीदी, पहाड़ के इस ओर जिधर से मैं आ रहा हूं,
उधर मेरा ससुराल है, और पहाड़ के उस पार
मेरा घर। मतलब ये कि पहाड़ से इस तरफ से चढ़ो और दुसरी तरफ उतर कर घर पहुंच जाओ। मैंने कहा- भाई, आज तुम्हारा ब्याह हुआ है तो (बराती, आजन-बाजन) सारे कहां हैं?
दुल्हा- दीदी, वो लोग तो अपनी चाल से कबका
घर पहुंच गए होंगे, हम ही इस के साथ पिछड़
गये हैं। तब मैंने मजे लेते हुए कहा- जानते हो दूर से तुम्हारी कनिया (पत्नी) ऐसी दिख रही थी- (काली -काली पथड़ा में लाली रे दुल्हनिया, कंटवा में उलझी भोली-भाली रे दूल्हनिया)
वो मेरा गाना सुन कर ताली बजाकर हंसते हुए कहने लगा, ऐही गीत तो हमरी गांवों में खुब बजती रही, लाउडस्पीकरवा मां। और उसके साथ-साथ हम-दोनों भी हंस पड़े, तब मैं उसकी दुल्हन की साड़ी में फंसी
चिड़चीरी के कांटों को निकाल कर उसके हाथ पर रख दिया, तो वो कहने लगा- दीदी, ये पत्थर और कांटे ही तो हमरी जीवन है, इस से हम अलग हो ही नहीं सकते।
तो ठीक है भाई, भगवान तुम्हें इनसे मुकाबला करने की हिम्मत
दें, कहती हुई मैं नीचे उतर आई।
पर नीचे भी एक और पुरातन संस्कृति मेरा इंतजार कर रही थी। नीचे चारों तरफ ग्रेनाइट
के काले-काले पत्थर फैले हुए थे, जो
थाली जैसे समतल और चिकने थे। इस पहाड़ पर अधिकतर
चट्टान काले थे। जब हमलोग उपर जा रहे थे, तब रास्ते में हमें कई गुफायें भी दिखे थे,
जो सभी बिल्कुल काले और अंधेरे थे। यहां के लोग बताते हैं कि कभी किसी काल में संन्यासी-बाबा लोग इन गुफाओं में बैठ कर साधना किया
करते थे और ॐ की ध्वनि से पूरा पहाड़ गुंजा करता था। हमारे मेजबान अभी भी कामों
में व्यस्त थे। उन्होंने हमें देख कर बैठने का इशारा किया तो मैं एक चट्टान पर बैठ
कर उनके क्रियाओं को समझने की कोशिश करने लगी। वे लोग एक छोटा सा कुएं से पानी निकाल-निकाल कर एक-दो चट्टानों को धो रहे थे। जब वे धुल कर
साफ हो गये, तब उसे अच्छी तरह से पोंछा गया।
पानी जब पूरी तरह से सुख गया, तब उनके ठीक बीचों-बीच गर्म-गर्म भात का ढेर बना दिया गया। उसके बाद गरम भात को उपर से दबा कर गढ़े कर उपर से
कटोरी का रूप दे दिया गया, अब कलछी द्वारा उस कटोरी में गाढ़ी दाल कुछ इस तरह से डाल
दिया गया कि पूरा चावल दाल से ढंक गया।
किसी ने गर्मा-गर्म खुशबूदार घी का डब्बा ले आया। चावल
के उपर घी डाला जाने लगा। जब ये प्रक्रिया पूरी हो गई, तब उन भात के ढेर को कलछी से
काट कर चार हिस्सों में बांट दिया गया। इसके बाद प्रत्येक भाग के पास थोड़ी
थोड़ी सब्जी, अचार रखे गये। जब उनकी
नजरों मे थाल सज गई तब लोगों को आमंत्रण दिया जाने लगा। और लोग आरंभ से आलथी-पालथी मार कर भात के एक भाग के पास बैठ
गये यानी प्रत्येक चट्टान पर चार-चार लोग एक साथ बैठ
कर खाना खाने लगे।
वहां बैठकर खाने के लिए मुझे भी बुलावा आ गया। लेकिन मैं
गहरे अजमंजस में थी। लावारिस पड़े 'चट्टानों’ को
भले ही धोया गया था, पर उसमें पतले पतले खरोंच तो थे ही, जिसमें गंदगी मौजुद हो सकती
थी। मैं सोच ही रही थी कि लोगों का शोर बढ़ने लगा था। लोग कहने लगे थे कि– बहना, अब
आ भी जाओ। कोई कह रह था दीदी, बैठिये न कुछ नहीं होगा, ये हमारी पुरानी परम्परा है।
बाध्य होकर मैं भी भात के एक ढेर के सामने बैठ गई। छोटा सा निवाला बना कर मुंह में डाला, पर ये क्या? दाल-चावल, जो साधारण ढंग से बनाये गये थे, उसमें इतना स्वाद कैसे आया या आज का ये भोजन इन चट्टानो की वजह से इतना सुस्वादु बन गया था? खैर, जो भी हो पर हमने अपने पूरी जीवन में ऐसा दाल-चावल नहीं खाया था और वो स्वाद आज भी मेरे मुंह मे रचा-बसा है।
लेखिका- चंद्रकांता दांगी |
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शुक्रवार, 3 मई 2024
मिल गए मेरे भगवान (कहानी- लेखिका-चंद्रकांता दांगी) (Mil Gaye Mere Bhagwan (Story-Writer-ChandraKanta Dangi)
मिल गये मेरे भगवान
चन्द्रकान्ता
दांगी
मन में काफी उत्सुकता और तत्परता थी अपनी
किशोरावस्था की दुनिया को फिर से अवलोकन करने का। और साथ ही अपने भगवान से मिल कर भक्ति
में डूब जाने का भी, पर मैं चलती गई। आई,टी,आई संस्थान पीछे छूट चुका था और फिर भी
मुझे वो पहाड़ी परिवेश नजर नहीं आ रहा था, जिसकी मुझे तलाश थी। बस चारों ओर खेत ही
खेत थे। मैं हताश होती हुई एक मुसाफिर से पूछी- ददा, पहले यहां पहाड़ हुआ करता था, न?
उसने जवाब दिया-बाई, वर्षो पहले यहां पहाड़ हुआ करता था, पर
अब तो टूट-टूट कर खेत बन गये
या कहें तो बना दिये गये। मैं सोचने लगी, कबीर दास कहते हैं कि, रस्सी आवत जात से शिल पे परत निशान, यानी कि वर्षो तक पत्थर को घीसा जाय, तब
उस पर निशान पड़ते हैं, टूट कर बिखरते नहीं,
लेकिन यहां तो पूरा पहाड़ ही माटी में विलीन हो चूका था। मैं धीरे से बोली- कम से कम मेरे भगवान को तो छोड़ देते।
बुजुर्ग-है ना बाई! वो देखो, वो छोटा सा टीला पर एक मन्दिर तो है, हो सकता है वहीं हो तुम्हारा भगवान”।
मैं पागलों की तरह भागती हुई उस टीले पर चढ़ने लगी, उपर- शीर्ष तक पहुंचने के लिये कुछ सीढ़ियां
बनाई गई थी। उपर चढ़ कर मैने पाया वहां एक दुर्गा माँ का मन्दिर था। मैं अनमनी सी उसी
मन्दिर की परिक्रमा करने लगी। मन्दिर के पीछे मुझे कुछ छोटे-बड़े पत्थरों के बीच, एक ‘शिव लिंग नजर आये। मैंने पास जा कर देखा
तो यह वही शिव - लिंग था बिना तराशे
खुरदरी पत्थर के अनगढ़त टुकड़ा। उन्हें पाकर मन खिल उठा। पर मन मे संताप भी कम नहीं
था।
मेरा वो भगवान, जो पहाड़ी पर घने वृक्ष कुन्ज के बीच शान और शान्ति से विराजते थे, आज लावारिस फेंक दिये गये थे। उनके पहाड़ो
के महल को ध्वस्त कर उन्हें बेघर कर दिया गया था। मैं उन्हीं उबड़ खाबड़ भूमि पर उनके
पास बैठ गई। और जब उन्हें ध्यान से देखा तो महसुस हुआ जैसे वो कह रहे हो “हताश मत हो मेरी बच्ची, ये तो समय का चक्र
है। आज तो हमारे इर्द–गिर्द ये चंद पत्थर
फिर भी दिख रहे हैं, हो सकता है कुछ दशक उपरान्त यहां सिर्फ रेत ही रेत नजर आये।” मैं बस ताकती रही उन्हें नहीं, वर्षों पहले उनके साथ गुजारे उन लम्हों
को, उस प्रकृति के शुद्ध रूप को, जो शायद आने वाले पीढ़ियां
देख ही नहीं पायेगी।
लेखिका- चंद्रकांता दांगी |
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गुरुवार, 2 मई 2024
कराहती लाश (कहानी-लेखिका-चंद्रकांता दांगी); Karahati Lash (Story-Writer-Chandrakanta Dangi)
कराहती लाश
चन्द्रकान्ता
दांगी
उस वक्त कड़ाके की सर्दी पड़ रही थी। मैं आसनसोल स्टेशन पर कालका मेल
ट्रेन का इंतजार कर रही थी। समय, यही कोई रात के 11 बजे रहे थे। ठंड इतनी ज्यादा थी कि पूरे शरीर को गर्म वस्त्रों से ढंक लेने के बावजूद स्टेशन पर बहने वाली ठंडी हवाएं अंगों को चुभ रही थी। ऐसी स्थिति में एक ही स्थान पर बैठ कर ट्रेन का इंतजार करना जब असंभव लगने लगा, तब मैं प्लेटफॉम पर चहलकदमी करने लगी।
चलने और चाय की घूंट अन्दर जाने के बाद शरीर मे थोड़ी गर्मी आई। यहां मैं इन सभी बातों को इसलिये बता रही हूं ताकि हमारे पाठक ठंड के हालात से परिचित हो सकें।
चहलकदमी करते - करते मेरी नज़रें एक जगह पर बार-बार टिक जा रही थीं। उस एक स्थान पर ऐसा कुछ था, जो मेरी ध्यान अपनी ओर आकर्षित करना चाह रहा था। पर ऐसा क्या था, वहां पर, जिसके चलते मैं बार-बार वहां का चक्कर लगाने को मजबुर हो रही थी। बात ये थी कि, इस जंगल के बीच थोड़ी सी जगह पर लोगों की सामान ढोने में काम आने वाली एक ट्रॉली पड़ी हुई थी। उसके उपर तो, बस एक जीर्ण सी मैली चादर ही नज़र आ रही थी। लेकिन, वो रहस्यमय इस लिए था, क्योंकि मैं जब भी वहां से गुजरती उस मैली चादर से निकलती हल्की सी दर्द भरी कराह मेरी कानों में गूंज उठती।
फिर भी, मैं उस आवाज़ के बारे में अंदाज नहीं लगा पा रही
थी। मुझे जरा भी अहसास नहीं हो पा रहा था कि दिल को बेचैन कर देने वाली ये करूण-क्रंदन, क्या वहीं से आ रही थी या यह कोई भ्रम था, या वास्तव में वहां ऐसी कोई कराह गूंज रही थी? फिर मेरी तरह वहां बहुत लोग थे तो क्या वे लोग इस बेचैन आवाज़ से अनभिज्ञ थे?।
अब मैं पागलों की तरह वहां के चक्कर काटने लगी, और हर बार उस विषेश स्थान से वही दर्द भरी धीमी कराह कानों में गूंज उठती।
कस्तूरी की खोज में पगलाया मृग की तरह मैं भी उस क्रंदन के श्रोत को पा लेना चाहती थी। मैं उस ट्रौली पर आंखें गड़ाए देखने की कोशिश करने लगी। लेकिन, वहां पतली सी मैली चादर के अलावा और कुछ भी नजर नहीं आया।
तो, क्या उस चादर की कोई आत्मा है? बेकार की सोच थी। अपनी सोच को परे ढकेलते हुए इस बार मैं तेजी से उधर बढ़ी, ये सोचते हुए कि हो न हो वहां पर कोई तो है, जो दर्द से बेचैन है और बार-बार मदद चाह रहा है। मैं चादर उठाकर देखना चाहती थी, तभी कुछ सफाई कर्मचारी आए और ट्रॉली को खींचते हुए एक तरफ ले गये। उस समय मैं अपनी जगह पर खड़ी होकर उन्हें जाते देखती रही। पर ये क्या, थोड़ी दूर पर एक खम्भे के पीछे उन लोगों ने ट्रॉली को पलट दिया, उनके ट्रॉली पलटते ही एक मानव शरीर जमीन पर आ गिरा। तब दिल को दहला देने वाली वही कराह मेरी कानों से पुनः टकराई। ये देख मुझसे रहा नहीं गया और मैं उस ओर दौड़ पड़ी। ठहरो! वो जिंदा है, पर वे लोग उस शख्स पर बिना ध्यान दिए यह कहते हुए एक तरफ चले गए "भिखारी कहीं के चले आते हैं मरने के लिए",।
भीड़ से टकरा कर मैं गोल-गोल घूम गई। उन सबों से उलझती-पुलझती मैं शीघ्र ही उसके पास पहुंच गई। देखा, आकाश की ओर ताकता, चित पड़े उस शख्स को। उसके दोनों हाथ छाती से चिपके हुए थे। उस को ढंकने वाला मैला आवरण उड़ कर कहीं दूर पड़ा दिखा। मैं शीघ्रता से उसे छूने लगी। पर अब वो शांत हो चूका था। दर्द भरी कराहें उसे मुक्त कर चुकी थी।
पौष महीने के उस ठंडी रात में ठंड धरा ने किसी को आश्रय तो दिया था, पर तड़पा कर उसकी जान ले ली थी। मैं थोड़ी देर तक घुरती रही। उस दुर्बल काया को, जो मात्र हड्डी का ढांचा था। तभी देखा मेरी ट्रेन सामने आकर खड़ी है। मैं यंत्रवत अपने सामान को घसीटती हुई ट्रेन में सवार हो गई।
थोड़ी देर बाद जब मैं वातानुकूलित बोगी के आरामदेह बिस्तर पर लेटी, तब मेरी आंखों मे उसका कंकाल-शरीर और मन में बेतहाशा दर्द की व्यथा तैर रही थी। थोड़ी सी देर में ही उसने मेरे साथ जन्मों के रिश्ते जोड़ लिये थे और वो बार-बार जैसे दुहरा रहा हो "हां, तुमने तो मेरी कराह सुनीं थी, क्या तुम मुझे इन्साफ दिला पाओगी, कठघरे में आओगी गवाही देने?" पर, मैं अपनी आत्मा को और उसे भी कोई उत्तर नहीं दे सकी, क्योंकि मैं निरुत्तर थी।
लेखिका- चंद्रकांता दांगी |
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