शुक्रवार, 3 मई 2024

मिल गए मेरे भगवान (कहानी- लेखिका-चंद्रकांता दांगी) (Mil Gaye Mere Bhagwan (Story-Writer-ChandraKanta Dangi)

मिल गये मेरे भगवान

                                              चन्द्रकान्ता दांगी

बहुत दिनों के बाद मुझे वहां दोबारा जाने का मौका मिला। मण्डला से कान्हा-किसली मार्ग पर एक संस्था है- आई.टी.आई, जिसे आदिवासी युवकों को टेक्नीकल शिक्षा देने के लिये बनाया गया है। उसके पास ही एक पहाड़ी थी। पहाड़ी के बहुत उपर भगवान शंकर का एक छोटा सा मंदिर था। घने जंगलों के बीच मंदिर तो शायद दिखता भी नहीं था, लेकिन मैं जब भी वहां जाती, उस मंदिर तक चढ़ती उतरती रहती पहाड़ को लांघते घने कुंज में मैं अकेली भगवान के पास बैठी रहती। उस वक्त तो मुझे ऐसा लगता जैसे मैं कैलाश पर्वत पर शंकर भगवान के सानिध्य में बैठी हूं। और वहां के बिताये क्षणों को मैं कभी भूल नहीं पाई थी। पहाड़ों की ऊंचाई में धुआं बनके घुमते मेरे वो ईश्वर जब-तब मेरे मन से निकल कर आंखों में तैरने लगते।

       मन में काफी उत्सुकता और तत्परता थी अपनी किशोरावस्था की दुनिया को फिर से अवलोकन करने का। और साथ ही अपने भगवान से मिल कर भक्ति में डूब जाने का भी, पर मैं चलती गई। आई,टी,आई संस्थान पीछे छूट चुका था और फिर भी मुझे वो पहाड़ी परिवेश नजर नहीं आ रहा था, जिसकी मुझे तलाश थी। बस चारों ओर खेत ही खेत थे।  मैं हताश होती हुई एक मुसाफिर से पूछी- ददा, पहले यहां पहाड़ हुआ करता था, न?

उसने जवाब दिया-बाई, वर्षो पहले यहां पहाड़ हुआ करता था, पर अब तो टूट-टूट कर खेत बन गये या कहें तो बना दिये गये। मैं सोचने लगी, कबीर दास कहते हैं कि, रस्सी आवत जात से शिल पे परत निशान, यानी कि वर्षो तक पत्थर को घीसा जाय, तब उस पर निशान पड़ते हैं, टूट कर बिखरते नहीं, लेकिन यहां तो पूरा पहाड़ ही माटी में विलीन हो चूका था। मैं धीरे से बोली- कम से कम मेरे भगवान को तो छोड़ देते।

बुजुर्ग-है ना बाई! वो देखो, वो छोटा सा टीला पर एक मन्दिर तो है, हो सकता है वहीं हो तुम्हारा भगवान

मैं पागलों की तरह भागती हुई उस टीले पर चढ़ने लगी, उपर- शीर्ष तक पहुंचने के लिये कुछ सीढ़ियां बनाई गई थी। उपर चढ़ कर मैने पाया वहां एक दुर्गा माँ का मन्दिर था। मैं अनमनी सी उसी मन्दिर की परिक्रमा करने लगी। मन्दिर के पीछे मुझे कुछ छोटे-बड़े पत्थरों के बीच, एकशिव लिंग नजर आये। मैंने पास जा कर देखा तो यह वही शिव - लिंग था बिना तराशे खुरदरी पत्थर के अनगढ़त टुकड़ा। उन्हें पाकर मन खिल उठा। पर मन मे संताप भी कम नहीं था।

मेरा वो भगवान, जो पहाड़ी पर घने वृक्ष कुन्ज के बीच शान और शान्ति से विराजते थे, आज लावारिस फेंक दिये गये थे। उनके पहाड़ो के महल को ध्वस्त कर उन्हें बेघर कर दिया गया था। मैं उन्हीं उबड़ खाबड़ भूमि पर उनके पास बैठ गई। और जब उन्हें ध्यान से देखा तो महसुस हुआ जैसे वो कह रहे होहताश मत हो मेरी बच्ची, ये तो समय का चक्र है। आज तो हमारे इर्दगिर्द ये चंद पत्थर फिर भी दिख रहे हैं, हो सकता है कुछ दशक उपरान्त यहां सिर्फ रेत ही रेत नजर आये।मैं बस ताकती रही उन्हें नहीं, वर्षों पहले उनके साथ गुजारे उन लम्हों को, उस प्रकृति के शुद्ध रूप को, जो शायद आने वाले पीढ़ियां देख ही नहीं पायेगी।


लेखिका- चंद्रकांता दांगी 

 >चंद्रकांता दांगी की अन्य कहानियां 

-मिल गए मेरे भगवान (कहानी- लेखिका-चंद्रकांता दांगी) (Mil Gaye Mere Bhagwan (Story-Writer-ChandraKanta Dangi)

-कराहती लाश (कहानी-लेखिका-चंद्रकांता दांगी); Karahati Lash (Story-Writer-Chandrakanta Dangi)

-फूल, तुम्हें भेजा है (कहानी) ।। Phool, Tumhe Bheja Hai

 -पराली:  ध्वंसकर्ता या सृजनकर्ता

-बाबू, जरा बच के


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

मुन (कहानी) II Mun (Kahani) II Chandrakanta Dangi ll SejalRaja ll

Audio Kahani:  Mun  by ChandraKanta Dangi ऑडियो कहानी टाइम- '.  मुन'- चंद्रकांता दांगी मेरा नाम चंद्रकांता दांगी है। मैं गृहिणी हू...