गुरुवार, 20 अप्रैल 2023

फूल, तुम्हें भेजा है (कहानी) ।। Phool, Tumhe Bheja Hai


जनवरी महीने की एक खूबसूरत दोपहर को, जो धूप से सराबोर थी, मैं खुद को रोक नहीं पाई और बाहर सैर के लिए निकल पड़ी। पर, बाहर का नजारा देखकर मैं सचमुच खिल उठी, क्योंकि 'बोगनविलिया' के फूल अपने यौवन पर थे, रंग-बिरंगे फूलों से लदी डालियां जमीन पर बिछ सी गई थी। और ऊपर से आलम ये था कि सूर्य की मूलायम, गर्म किरणें सर्दी से ठिठुरती शरीर को गर्माहट दे रही थी। ऐसे में दिल कर रहा था, बस चलती ही रहूं और ये रास्ते खत्म ही ना हो। रास्ते के मोड़ के साथ मुड़ती झुमती मैं चली ही जा रही थी, कि एक मोड़ पर देखा रमा, अपने फ्लैट के सामने बैठी धूप ताप रही थी, न चाहते हुए भी उससे बातें करनी पड़ी। वो अच्छे मुड में थी और बातों बातों में मुझे अपने घर में ले आई, बाहर के नजारें मुझे अपनी ओर इशारे से बुला रहे थे, पर मैं विवश हो, उसके सोफे में धंस गई। 

दो मिनट बाद ही रमा का मोबाइल बज उठा। वह ये कहती हुई उठ गई कि आज मेरा जन्मदिन है। इसलिये बार बार फोन आ रहे हैं और वह फोन पर बातों में मशगुल हो गई। और मैं अनमनी सी बैठी उसकी बातों को सुनकर मुस्कराने की कोशिश करती रही। फिर तो अगले 30 मिनट तक ये सिलसिला चलता रहा, इतने समयों में उसके लगभग दस कॉल आ चुके थे। हर बार शायद उसे बधाई दी जाती, और वह बोल पड़ती- थैक्यू जी। उसकी थैंक्यू से मैं थकने लगी थी, पर वो तो थकने का नाम ही नहीं ले रही थी। किसी तरह उससे इजाजत लेकर वापस आ गई। 

पर, दूसरे दिन, कल का रोमांच मुझे आज भी न्यौता देने लगे थे, और मैं मंत्रमुग्ध सी बाहर निकल आई। " पर हाय री, मेरी किस्मत! आज फिर से रमा सामने खड़ी थी। मैंने यूं ही पूछ लिया, " उम्मीद है कल की थकान उतर गए होंगे?" " कहां यार, जरा झांक तो लो मेरे ड्राइंग रूम में "। और जब मैंने अंदर देखा तो दंग रह गई। वहां फूलों के गुलदस्ते ठूंसे पड़े हुए थे। सोफे पर, टेबल पर, जमीन पर हर जगह पर लाल, पीली कलियां ही नजर आ रही थी। यहां तक कि एक दूसरे को धकियाते गुलदस्ते दरवाजे तक फैले आए थे। 

मैंने ध्यान से देखा तो खूबसूरत अधखिली कलियां जोर लगाकर अपनी बंद पंखुड़ियों को खोलने का प्रयत्न कर रही थी। शायद मुरझाते मुरझाते भी अपनी अभिलाषा को पूर्ण कर लेना चाहती थी, और एक कली भला क्या चाहेगी, पूर्ण फूल बन जाना, ताकि उसकी पंखुड़ियां हवा में इस तरह लहराये कि उसकी खुशबू बाग में फैल जाए और गुन गुन करते भंवरे उसकी ओर दौड़ पड़ें। बस, एक दिन तो शबनम की बुंदों से वो सिहर उठे, पर उसकी पंखुड़ियां थोड़े से फैलकर फिर से बंद हो जाती, क्योंकि उसमें और खुलने की ताकत बची ही नहीं थी। 

तभी कुछ लोग आये और उन फूलों को गाड़ी में भरने लगे, क्योंकि अब वो कचड़ा बन चुकी थीं। पर, कुछ कलियों के गुच्छे अस्त व्यस्त हो गाड़ी से बाहर झुलने लगे थे। मेरी तरफ लटकती वो लाल लाल कलियां, ऐसा लग रहा था जैसे सिसक रही हों। रोते रोते उनकी पंखुड़ियां मुंदती जा रही थी, शायद वो अब अपनी आशाओं को निरर्थक मान चुकी थी। 

इस मुहूर्त पे जो मेरे जेहन में कौंधा, वो था, जयशंकर प्रसाद जी की लिखी, ये दो पंक्तियां- ये तो  नहीं जानती कि महाकवि ने ना जाने कितना भावुक होकर इस कविता की रचना की होगी, पर मुझे इतना विश्वास है कि वो आज इन मासूम कलियों को देखकर ऐसा कुछ जरूर लिख जाते। वो पंक्तियां हैं- 

सुख का सपना बन जाना ।।

भीगें पलकों का लगना ।। 

तो, बंधुओं हमारा सप्रेम भेंट तो एक फूल भी हो सकता है फिर दिखावा क्यूं? "गौर कीजिएगा।" 


लेखिका- चंद्रकांता दांगी 

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