गुरुवार, 2 मई 2024

कराहती लाश (कहानी-लेखिका-चंद्रकांता दांगी); Karahati Lash (Story-Writer-Chandrakanta Dangi)

                                         कराहती लाश

                                        चन्द्रकान्ता दांगी



उस वक्त कड़ाके की सर्दी पड़ रही थी। मैं आसनसोल स्टेशन पर कालका मेल ट्रेन का इंतजार कर रही थी। समय, यही कोई रात के 11 बजे रहे थे। ठंड इतनी ज्यादा थी कि पूरे शरीर को गर्म वस्त्रों से ढंक लेने के बावजूद स्टेशन पर बहने वाली ठंडी हवाएं अंगों को चुभ रही थी। ऐसी स्थिति में एक ही स्थान पर बैठ कर ट्रेन का इंतजार करना जब असंभव लगने लगा, तब मैं प्लेटफॉम पर चहलकदमी करने लगी।

चलने और चाय की घूंट अन्दर जाने के बाद शरीर मे थोड़ी गर्मी आई। यहां मैं इन सभी बातों को इसलिये बता रही हूं ताकि हमारे पाठक ठंड के हालात से परिचित हो सकें।

चहलकदमी करते - करते मेरी नज़रें एक जगह पर बार-बार टिक जा रही थीं। उस एक स्थान पर ऐसा कुछ था, जो मेरी ध्यान अपनी ओर आकर्षित करना चाह रहा था। पर ऐसा क्या था, वहां पर, जिसके चलते मैं बार-बार वहां का चक्कर लगाने को मजबुर हो रही थी। बात ये थी कि, इस जंगल के बीच थोड़ी सी जगह पर लोगों की सामान ढोने में काम आने वाली एक ट्रॉली पड़ी हुई थी। उसके उपर तो, बस एक जीर्ण सी मैली चादर ही नज़र रही थी। लेकिन, वो रहस्यमय इस लिए था, क्योंकि मैं जब भी वहां से गुजरती उस मैली चादर से निकलती हल्की सी दर्द भरी कराह मेरी कानों में गूंज उठती।

फिर भी, मैं उस आवाज़ के बारे में अंदाज नहीं लगा पा रही थी। मुझे जरा भी अहसास नहीं हो पा रहा था कि दिल को बेचैन कर देने वाली ये करूण-क्रंदन, क्या वहीं से रही थी या यह कोई भ्रम था, या वास्तव में वहां ऐसी कोई कराह गूंज रही थी? फिर मेरी तरह वहां बहुत लोग थे तो क्या वे लोग इस बेचैन आवाज़ से अनभिज्ञ थे?

अब मैं पागलों की तरह वहां के चक्कर काटने लगी, और हर बार उस विषेश स्थान से वही दर्द भरी धीमी कराह कानों में गूंज उठती।

कस्तूरी की खोज में पगलाया मृग की तरह मैं भी उस क्रंदन के श्रोत को पा लेना चाहती थी।  मैं उस ट्रौली पर आंखें गड़ाए देखने की कोशिश करने लगी। लेकिन, वहां पतली सी मैली चादर के अलावा और कुछ भी नजर नहीं आया।

तो, क्या उस चादर की कोई आत्मा है? बेकार की सोच थी। अपनी सोच को परे ढकेलते हुए इस बार मैं तेजी से उधर बढ़ी, ये सोचते हुए कि हो हो वहां पर कोई तो है, जो दर्द से बेचैन है और बार-बार मदद चाह रहा है। मैं चादर उठाकर देखना चाहती थी, तभी कुछ सफाई कर्मचारी आए और ट्रॉली को खींचते हुए एक तरफ ले गये। उस समय मैं अपनी जगह पर खड़ी होकर उन्हें जाते देखती रही। पर ये क्या, थोड़ी दूर पर एक खम्भे के पीछे उन लोगों ने ट्रॉली को पलट दिया, उनके ट्रॉली पलटते ही एक मानव शरीर जमीन पर गिरा। तब दिल को दहला देने वाली वही कराह मेरी कानों से पुनः टकराई। ये देख मुझसे रहा नहीं गया और मैं उस ओर दौड़ पड़ी। ठहरो! वो जिंदा है, पर वे लोग उस शख्स पर बिना ध्यान दिए यह कहते हुए एक तरफ चले गए "भिखारी कहीं के चले आते हैं मरने के लिए",

भीड़ से टकरा कर मैं गोल-गोल घूम गई। उन सबों से उलझती-पुलझती मैं शीघ्र ही उसके पास पहुंच गई। देखा, आकाश की ओर ताकता, चित पड़े उस शख्स को। उसके दोनों हाथ छाती से चिपके हुए थे। उस को ढंकने वाला मैला आवरण उड़ कर कहीं दूर पड़ा दिखा। मैं शीघ्रता से उसे छूने लगी। पर अब वो शांत हो चूका था। दर्द भरी कराहें उसे मुक्त कर चुकी थी।

पौष महीने के उस ठंडी रात में ठंड धरा ने किसी को आश्रय तो दिया था, पर तड़पा कर उसकी जान ले ली थी। मैं थोड़ी देर तक घुरती रही। उस दुर्बल काया को, जो मात्र हड्डी का ढांचा था। तभी देखा मेरी ट्रेन सामने आकर खड़ी है। मैं यंत्रवत अपने सामान को घसीटती हुई ट्रेन में सवार हो गई।

थोड़ी देर बाद जब मैं वातानुकूलित बोगी के आरामदेह बिस्तर पर लेटी, तब मेरी आंखों मे उसका कंकाल-शरीर और मन में बेतहाशा दर्द की व्यथा तैर रही थी। थोड़ी सी देर में ही उसने मेरे साथ जन्मों के रिश्ते जोड़ लिये थे और वो बार-बार जैसे दुहरा रहा हो "हां, तुमने तो मेरी कराह सुनीं थी, क्या तुम मुझे इन्साफ दिला पाओगी, कठघरे में आओगी गवाही देने?" पर, मैं अपनी आत्मा को और उसे भी कोई उत्तर नहीं दे सकी, क्योंकि मैं निरुत्तर थी। 



लेखिका- चंद्रकांता दांगी 

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गुरुवार, 20 अप्रैल 2023

फूल, तुम्हें भेजा है (कहानी) ।। Phool, Tumhe Bheja Hai


जनवरी महीने की एक खूबसूरत दोपहर को, जो धूप से सराबोर थी, मैं खुद को रोक नहीं पाई और बाहर सैर के लिए निकल पड़ी। पर, बाहर का नजारा देखकर मैं सचमुच खिल उठी, क्योंकि 'बोगनविलिया' के फूल अपने यौवन पर थे, रंग-बिरंगे फूलों से लदी डालियां जमीन पर बिछ सी गई थी। और ऊपर से आलम ये था कि सूर्य की मूलायम, गर्म किरणें सर्दी से ठिठुरती शरीर को गर्माहट दे रही थी। ऐसे में दिल कर रहा था, बस चलती ही रहूं और ये रास्ते खत्म ही ना हो। रास्ते के मोड़ के साथ मुड़ती झुमती मैं चली ही जा रही थी, कि एक मोड़ पर देखा रमा, अपने फ्लैट के सामने बैठी धूप ताप रही थी, न चाहते हुए भी उससे बातें करनी पड़ी। वो अच्छे मुड में थी और बातों बातों में मुझे अपने घर में ले आई, बाहर के नजारें मुझे अपनी ओर इशारे से बुला रहे थे, पर मैं विवश हो, उसके सोफे में धंस गई। 

दो मिनट बाद ही रमा का मोबाइल बज उठा। वह ये कहती हुई उठ गई कि आज मेरा जन्मदिन है। इसलिये बार बार फोन आ रहे हैं और वह फोन पर बातों में मशगुल हो गई। और मैं अनमनी सी बैठी उसकी बातों को सुनकर मुस्कराने की कोशिश करती रही। फिर तो अगले 30 मिनट तक ये सिलसिला चलता रहा, इतने समयों में उसके लगभग दस कॉल आ चुके थे। हर बार शायद उसे बधाई दी जाती, और वह बोल पड़ती- थैक्यू जी। उसकी थैंक्यू से मैं थकने लगी थी, पर वो तो थकने का नाम ही नहीं ले रही थी। किसी तरह उससे इजाजत लेकर वापस आ गई। 

पर, दूसरे दिन, कल का रोमांच मुझे आज भी न्यौता देने लगे थे, और मैं मंत्रमुग्ध सी बाहर निकल आई। " पर हाय री, मेरी किस्मत! आज फिर से रमा सामने खड़ी थी। मैंने यूं ही पूछ लिया, " उम्मीद है कल की थकान उतर गए होंगे?" " कहां यार, जरा झांक तो लो मेरे ड्राइंग रूम में "। और जब मैंने अंदर देखा तो दंग रह गई। वहां फूलों के गुलदस्ते ठूंसे पड़े हुए थे। सोफे पर, टेबल पर, जमीन पर हर जगह पर लाल, पीली कलियां ही नजर आ रही थी। यहां तक कि एक दूसरे को धकियाते गुलदस्ते दरवाजे तक फैले आए थे। 

मैंने ध्यान से देखा तो खूबसूरत अधखिली कलियां जोर लगाकर अपनी बंद पंखुड़ियों को खोलने का प्रयत्न कर रही थी। शायद मुरझाते मुरझाते भी अपनी अभिलाषा को पूर्ण कर लेना चाहती थी, और एक कली भला क्या चाहेगी, पूर्ण फूल बन जाना, ताकि उसकी पंखुड़ियां हवा में इस तरह लहराये कि उसकी खुशबू बाग में फैल जाए और गुन गुन करते भंवरे उसकी ओर दौड़ पड़ें। बस, एक दिन तो शबनम की बुंदों से वो सिहर उठे, पर उसकी पंखुड़ियां थोड़े से फैलकर फिर से बंद हो जाती, क्योंकि उसमें और खुलने की ताकत बची ही नहीं थी। 

तभी कुछ लोग आये और उन फूलों को गाड़ी में भरने लगे, क्योंकि अब वो कचड़ा बन चुकी थीं। पर, कुछ कलियों के गुच्छे अस्त व्यस्त हो गाड़ी से बाहर झुलने लगे थे। मेरी तरफ लटकती वो लाल लाल कलियां, ऐसा लग रहा था जैसे सिसक रही हों। रोते रोते उनकी पंखुड़ियां मुंदती जा रही थी, शायद वो अब अपनी आशाओं को निरर्थक मान चुकी थी। 

इस मुहूर्त पे जो मेरे जेहन में कौंधा, वो था, जयशंकर प्रसाद जी की लिखी, ये दो पंक्तियां- ये तो  नहीं जानती कि महाकवि ने ना जाने कितना भावुक होकर इस कविता की रचना की होगी, पर मुझे इतना विश्वास है कि वो आज इन मासूम कलियों को देखकर ऐसा कुछ जरूर लिख जाते। वो पंक्तियां हैं- 

सुख का सपना बन जाना ।।

भीगें पलकों का लगना ।। 

तो, बंधुओं हमारा सप्रेम भेंट तो एक फूल भी हो सकता है फिर दिखावा क्यूं? "गौर कीजिएगा।" 


लेखिका- चंद्रकांता दांगी 

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